रिपोर्ट -डॉ रामशंकर भारती
जनपद जालौन की अपनी सांस्कृतिक यात्रा के दौरान आज के इस अंक में बुंदेलखण्ड के प्रवेश द्वार ऐतिहासिक नगरी कालपी में स्थापित प्रसिद्ध सिद्धि शक्ति पीठ “वनखण्डी देवी” के विषय में कुछ चर्चा करूँ, उसके पहले “नवरात्र” व “नवदुर्गा” के विषय में संक्षिप्त
टिप्पणी देने का प्रयास कर रहा हूँ …..
‘नवरात्र’ शब्द से नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियों) का बोध होता है। इस समय शक्ति के नवरूपों की उपासना की जाती है। ‘रात्रि’ शब्द सिद्धि का प्रतीक है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो ऐसे उत्सवों को ‘रात्रि’ न कहकर ‘दिन’ ही कहा जाता लेकिन नवरात्र के दिन, ‘नवदिन’ नहीं कहे जाते हैं बल्कि ‘नवरात्र’ कहे जाते हैं।
मनीषियों ने वर्ष में 2 बार नवरात्रों का विधान बनाया है। विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से 9 दिन अर्थात नवमी तक और इसी प्रकार ठीक 6 मास बाद आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के 1 दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इन नवरात्रों में साधक अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन ,योग-साधना आदि करते हैं।
कुछ साधक इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप द्वारा विशेष सिद्धियाँ प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं, उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है इसीलिए ऋषि-मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर-दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। यह रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है।
जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं, उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि, उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य होती है।
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में 1 साल की 4 संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के 2 मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक आशंका होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं। अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तन-मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ‘नवरात्र’ है।
मैंने ऐसे पवित्र देव-देवी मठ-मंदिरों पर तमाम उन नवबुद्धिवादिओं और अनीश्वरवादियों को भी माथा नवाते देखा है जो अपने समाज के बीच बैठकर अपने भाषणों में , प्रवचनों में इन आस्थाओं की जमकर खिंचाई करते हैं।लोकपरंपराओं का जमकर विरोध करते हैं।
हमारे भारत का आम जनमानस आस्थाओं का हिमालय है। चाहे गाँव हो या शहर,आप कहीं भी जाइए आपको हर जगह छोटी-छोटी मठियाँ,मठ मंदिर,शिवालय – देवालय, चबूतरा , थान , धाम , बैठकी आदि देवी -देवताओ के पवित्र धाम मिल ही जाएँगे। इन सभी स्थानों में दैवीय सत्ता की अवस्थापनाएँ आस्थावान आम जनमानस को ईश्वर के होने की अनुभूति करातीं हैं।
चलिए आज आपको कालपी स्थित वनखण्डी देवी धाम के दर्शन कराता हूँ। वनखंडी देवी मंदिर की बड़ी विचित्र कथा है। वर्तमान में जहाँ पर वनखंडी देवी का यह मंदिर बना हुआ है, वहाँ पर प्राचीनकाल में अत्यंत घना जंगल हुआ करता था। दूर-दूर तक बड़े – बड़े छायादार पेड़ थे। बरगद,पीपल,आम , नीम , शीशम के अलावा कटीला,खर, बबूल आदि के कटीले पेड़ कोसों तक कतारों में खड़े थे। इन पेड़ों की छाँव में बैठकर ग्वाले, बरेदी (चरवाहे ) अपने जानवर चराते थे।
यहीं एक पीपल की छाँव में बैठकर बरेदी आपस में लोकगाथाओं के किस्से- कहानियाँ सुनाया करते थे। एक सुबह जब बरेदी अपने जानवर को लेकर जंगल में पहुँचे तब उन्होंने देखा कि विशालकाय पीपल के नीचे की धरती को फाड़कर एक देवी प्रतिमा निकल आयी है।
फिर क्या था यह खबर कालपी के पूरे आलमपुरा मोहल्ला के आसपास तथा दूसरे क्षेत्रों में फैलते देर नहीं लगी। धीरे धीरे आस्थावान लोगों ने उस देवी प्रतिमा को वहीं स्थापित कर दिया । फिर क्या राजा, क्या साहूकार,क्या किसान, बूढ़े , जवान तथा कुछ साधु-संत प्रवृत्ति के लोग आकर के यहाँ पूजा करने लगे। उन लोगों ने ही इस देवी प्रतिमा को वनखंडी देवी पुकारना शुरु कर दिया होगा। धीरे- धीरे यहाँ मंदिर का निर्माण लोगों ने प्रारंभ कर दिया। यह जनश्रुति भी है लोक विश्वास भी। इस तथ्य की प्रामाणिकता को लेकर स्थानीय श्रद्धालुओं में तनिक भी संदेह नहीं है।
लगभग 400 साल पुरानी इस मूर्ति को लेकर अनेक पौराणिक संदर्भ भी जोड़े गए हैं। मंदिर के पूर्व महंत जमुनादास जी महाराज के शिष्य बताते है कि देवी की प्रेरणा से ही मंदिर का विकास हुआ है। मंदिर के परिसर में ही भगवान मृत्युंजय व माता पार्वती के मंदिर की स्थापना कराई गई है। मंदिर में कमरे आदि भी बनवाए गए हैं। नवरात्र में यहाँ पर कानपुर नगर, कानपुर देहात , झाँसी व मध्य प्रदेश से भी भक्त आते है। भक्त मंदिर में डला (डाली ) व जवारे चढ़ाते है। यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण व आस्था केंद्र है।
स्थानीय भक्तों में ऐसी मान्यता है कि संकट और आपदाओं में माता वनखंडी देवी सहायता करतीं हैं।तमाम मुसीबतों से छुटकारा दिलातीं हैं। माँ ! सभी का भला करतीं हैं। वर्ष 1995 में जब इस क्षेत्र अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी। भयानक सूखा पड़ा तो लोग परेशान हो गए। मंदिर के तत्कालीन महंत जमुनादास जी ने सूखा से मुक्ति के लिए मंदिर पर शतचंडी महायज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ समाप्ति पर भंडारा चल रहा था। तभी अचानक बादलों की फौजें आकाश पर चढ़कर गरजने – बरसने लगी। मूसलाधार बारिश होने से जनमानस पशुओं , पक्षियों , पेड़- पौधों आदि को नवजीवन मिल गया….।
लोग देवी मां के जयकारे लगाकर नाचने – गाने लगे। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी आज भी मंदिर आते रहते हैं।
इसी प्रकार वर्ष 2001 मे जब यज्ञ हुआ तो भंडारा का भोजन बन रहा था तभी एक कन्या भीषण रूप से जलती हुई भट्टी मे चली गई। लेकिन वह सकुशल भट्टी से वापस आ गई।
पौराणिक व ऐतिहासिक नगरी कालपी स्थित माँ वनखण्डी देवी शक्तिपीठ संकट से लोगों को उबारने के लिए प्रसिद्ध है।
यदि इस शक्तिपीठ को पर्यटन स्थल में शामिल कर लिया जाए तो कालपी नगर का बहुमुखी विकास हो सकता है। वर्तमान में यह मंदिर अनेकानेक अभावग्रस्त है। यहाँ पहुँचने के संसाधनों की कमी है। मुख्य सड़क मार्ग से वनखण्डी देवी मंदिर तक जानेवाली सड़क जर्जर हो चुकी है।
विकास की बाट जोहता ऐतिहासिक नगर कालपी