Saturday, March 15, 2025

सुमिर शारदा बैरागढ़ की

© डॉ० रामशंकर भारती
चैत के घाम की तपन तचने लगे उससे पहले ही मैं शक्तिपीठ बैरागढ़ के लिए चल पड़ा हूँ। जनपद जालौन की तहसील उरई में कोंच तहसील की सीमा पर स्थित है चंदेलकालीन बैरागढ़ शारदा शक्ति पीठ। वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक ने अपने महाकाव्य आल्हखण्ड में बैरागढ़ शारदा धाम का अत्यंत मनोहारी वर्णन किया है। महाकवि जगनिक ने आल्हखण्ड के मंगलाचरण चरण में बैरागढ़ की शारदा मैय्या तथा महोबा के मनियादेव महाराज की स्तुति करते हुए लिखा है…
सुमिर शारदा बैरागढ़ की, मनिया सुमिर महोबे क्यार…।।

मैं कोंच-एट सड़क मार्ग होते हुए बैरागढ़ आगया हूँ। यहाँ बाँया एट होकर या फिर उरई – कोंच मुख्य मार्ग पर स्थित हरदोई से आठ किमी दक्षिण का रास्ता तय करके भी पहुँचा जा सकता है। उत्तर मध्य रेलवे झाँसी – कानपुर रेल मार्ग पर एट जंक्शन से सात किमी उत्तर में यह बैरागढ़ का चंदेलनकालीन शारदा मंदिर बना है। उरई मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर बैरागढ़ स्थान पर स्थित माँ शारदे का यह भव्य मंदिर वर्षों से भक्तों की आस्था का केंद्र बना हुआ है।

आइए, हम आपको उस ऐतिहासिक मन्दिर की ओर ले चलते हैं जो आखिरी हिन्दूराजा पृथ्वीराज चौहान और बुन्देलखंड के वीर योद्धा आल्हा-ऊदल के युद्ध का आज के समय में भी गवाह बना हुआ। यह मन्दिर उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के बैरागढ़ में स्थित है जो शक्ति पीठ शारदा देवी मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ जालौन से ही नहीं अपितु पूरे दूर-दराज के क्षत्रों से श्रद्धालु दर्शन करने के लिए आते हैं। यहां पर नवरात्र ही नहीं बल्कि पूरे 12 माह लोग आते हैं। नवरात्र पर यहाँ पर भव्य मेला का आयोजन किया जाता है।

मंदिर में पर ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती माँ शारदा के रूप में विराजमान हैं। माँ शारदा देवी की अष्टभुजी मूर्ति लाल पत्थर से निर्मित है। माँ शारदा का शक्ति पीठ बैरागढ़ मन्दिर की स्थापना चन्देलकालीन राजा टोडलमल द्वारा ग्यारहवी सदी में कराई गई थी। जबकि किवदंतियों के अनुसार यह मन्दिर आदिकाल में निर्मित कराया गया था और माँ शारदा की मूर्ति मन्दिर के पीछे बने एक कुंड से निकली थी। प्राचीन किवदंतियों के अनुसार कुंड से मां शारदा प्रकट हुई थी इसीलिए इस स्थान को शारदा देवी सिद्ध पीठ कहा जाता है।

प्राचीन काल में यहाँ छोटा मंदिर ही था। वर्तमान में यहाँ विस्तार करके मन्दिर को दिव्य भव्य बनाया गया है। मंदिर को लेकर अनेक किवदंती हैं और जनश्रुतियाँ भी है। भक्तों की मान्यताओं के अनुसार माँ शरदा दिन में तीन रूपों में दिखाई देती हैं। सुबह के समय मूर्ति कन्या के रूप में नजर आती है तो दोपहर के समय युवती के रूप में और शाम के समय माँ के रूप में मूर्ति दिखाई देती है। जिनके दर्शनों के लिये पूरे भारत वर्ष से श्रद्धालु दर्शन करने आते है।

महाकवि जगनिक आल्हखण्ड केअनुसार माँ शारदा शक्तिपीठ पृथ्वीराज और आल्हा के युद्ध की साक्षी हैं। पृथ्वीराज ने बुन्देलखण्ड को जीतने के उद्देश्य से ग्यारहवीं सदी के बुन्देलखण्ड के तत्कालीन चन्देल राजा परमर्दिदेव (राजा परमाल) पर चढाई की थी। उस समय चन्देलों की राजधानी महोबा थी। आल्हा-उदल राजा परमाल के मंत्री के साथ वीर योद्धा भी थे। बैरागढ़ के युद्ध में आल्हा-उदल ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में बुरी तरह परास्त कर दिया था।

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आल्हा और उदल माँ शारदा के उपासक थे। जिसमें आल्हा को माँ शारदा का वरदान था कि उन्हें युद्ध में कोई नहीं हरा पायेगा। आल्हा को अमर होने का भी वरदान शारदा मैय्या ने दिया था।उदल की मौत के बाद आल्हा ने प्रतिशोध लेते हुये अकेले पृथ्वीराज से युद्ध किया और विजयश्री प्राप्त की थी। अपनी विजय के उपलक्ष्य में आल्हा ने विजय स्वरूप माँ शारदा के चरणोंं विकराल साँग गाढ़ दी थी और युद्ध से बैराग ले लिया। यह साँग आज भी मन्दिर के शिखर के पार्श्व भाग में गढ़ी है। इस साँग की ऊँचाई 30 फिट से भी ऊंची है और यह साँग जमीन में इतनी ही अधिक गढ़ी है।

मन्दिर में आल्हा द्वारा गाड़ी गई साँग इसकी प्राचीनता दर्शाता है। जब आल्हा ने युद्ध से बैराग लिया तभी से इस स्थान का नाम बैरागढ़ पड़ गया। कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि आल्हा ने इस स्थान पर बैरियों का सफाया किया था इसलिए इस स्थान का नाम बैरागढ़ पड़ गया।

समूचे देश में इस प्रकार मन्दिर दो ही स्थानों पर हैं। जिसमें एक जालौन के बैरागढ़ में और दूसरा मध्य प्रदेश के सतना जनपद के मैहर में है। मन्दिर की प्रचीनता और सिद्ध पीठ होने के कारण मां शारदा के दर्शन करने के लिए आते हैं। मन्दिर के पीछे एक कुंड है। ऐसा लोक विश्वास है कि इस कुंड में नहाने से सभी प्रकार के चरम रोग समाप्त हो जाते हैं।

लोक मान्यताएँ, आस्थाएँ और परंपराएँ अद्भुत होतीं हैं। कभी – कभी यह अविश्वसनीय लगती हैं किंतु जब सत्य की कसौटी पर और इतिहास के यथार्थ के धरातल पर इन्हें जाँचा-परखा जाता है तो फिर दंग रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। तब हमारा बुद्धिचातुर्य व पाण्डित्य धरा का धरा रह जाता है। श्रद्धाभाव निश्चल और निश्छल हृदय में ही पल्लवित-पुष्पित होता है। किंतु इतिहास बहुत कठोर होता है, निर्मम भी होता है।

वहाँ इन सब भावनात्मक बातों के लिए तनिक भी गुंजाइश नहीं है। इतिहास तो घटनाओं के सिलसिलेवार अध्ययन,आंकड़ों,अभिलेखों, पुरातत्व आदि के सर्वेक्षण के माध्यम से तथ्यों की तफ्तीश करता है। इतिहास का शिशु विद्यार्थी होने के नाते मेरी एक आँख इतिहासकार की भी है और श्रद्धालु होने के कारण दूसरी आँख श्रद्धा की भी है। मेरी श्रद्धा में पाखण्डों,अँधविश्वासों, आडंबरों के लिए तनिक भी ठौर नहीं है। अस्तु, उसी दृष्टि से इन विषयों पर लिखता हूँ। मेरे लेखन में इन दोनों दृष्टिओं का समन्वय है।
अब पाठकों को क्या लगता है …? यह उनके सोचने का विषय है। …. ….जाकी रही भावना जैसी …..।

Shri Ram Janki Baithe Hain श्री राम जानकी बैठे हैं मेरे सीने में

 

जानिए बुन्देलखण्ड की लोककला और सकृति के बारे में 

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